रविवार, 17 अक्तूबर 2010

मैं भी रावण बनूंगा.

मैं भी रावण बनूंगा.

जहां अपने देश में बचपन से ही राम के आदर्शों के बारे में बच्चों को बताया पढ़ाया जाता हैं और उन पर चलने की नसीहत दी जाती है, वहां ऐसी बात सुन कर आप सभी को झटका लग रहा होगा कि ये क्या बात हुई। राम के आदर्शों की दुहाई देने वाले इस देश में रावण बनने की बात हो रही है। लेकिन ये बात काफी हद तक सत्य है। अभी हालही की बात है जब मेरे पास मेरे एक मित्र का सुबह ही फोन आया और उसने ऐसी ही मंशा जाहिर की सुनकर तो मुझे भी पहली बार मजाक लगा लेकिन उसकी आगे की बात सुनकर मैं भी सोंच में डूब गया कि अब ये दिन आ गये हैं पत्रकारों के कि उनको अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए रावण बनना पड़ेगा। हमारे मित्र पेशे से पत्रकार हैं भगवान ने हस्टपुस्ट शरीर और कद काठी उनको दी है। काफी समय से मीडिया में सक्रिय हैं। उन्होंने बहुत खोजी पत्रकारिता कर तमाम खुलासे किये हैं जिनके चलते उन्होंने खूब नौकरियां भी बदली कभी इस चैनल कभी उस चैनल लेकिन प्राइवेट नौकरी खासकर पत्रकारिता में कुछ नौकरी जाने की संभावना ज्यादा ही बनी रहती है। सो बीच-बीच में बेरोजगार भी हो जाते हैं। उनके पीछे उनका परिवार भी है जिसमें बीवी और दो छोटे बच्चे भी जो कभी कांवेन्ट स्कूल में पढ़ते थे आज घर पर ही देखे जाते हैं। कारण बीच में नौकरी छूट जाना। क्योंकि जिस चैनल में काम करते थे पहले तो जान-जोखिम में डलवाकर उसके स्टिंग करवाया फिर उस खुलासे को खोलने की हिम्मत चैनल की नहीं हुई इसकी वजह तो चैनल वाले ही जाने लेकिन भाई ने जब इस पर ऐतराज जाहिर किया तो उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। समझ में नहीं आता ये वही पत्रकार है जिसने ना जाने कितनों की मदद की है। और जिसके नाम से लोग खौफ खाते थे जो दूसरों की लड़ाई अपने कंधो पर ले आगे आ जाता था। वो इतना असहाय कैसे हो गया कि खुद अपनी लड़ाई भी नहीं लड़ सकता है। नौकरी गई तो देनदारियां भी बढ़ती गई और एक दिन ये स्थिति आ गई कि माकान मालिक ने भी उसको अल्टीमेटम दे दिया कि अब और गुजारा नहीं हो सकता। भई कोई क्यों दो चार महीने का पैसा उधार करने लगे जहां आजकल एडवांस का जमाना है। फिलहाल इनको एक चैनल में बड़ी मसक्कत के बाद नौकरी तो मिली लेकिन, वो भी ऐसी कि कहने को तो रोजगार हो गए लेकिन तीन- महीने गुजर गए लेकिन सैलरी का कोई नामोनिशान नहीं। अब तो इनकी हालात और पतली हो गई। क्योंकि घर से बाहर निकलने के लिए किराए के पैसे तो चाहिए ही। इसलिए चारों ओर से मुसीबतों से घिरा इंसान कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। इसलिए इन्होंने रावण बनने की ठान ली। इन्होंने सुन रखा था कि आजकल रामलीला में पात्रों की अच्छी डिमांड हैं और पैसे भी अच्छे और नगद मिल जाते हैं। इसलिए इन्होंने रावण बनने की ठान ली और मुझसे कहीं बात करने की मिन्नत करने लगे। थक हार कर मैंने एक रामलीला कमेटी के मुखिया का नंबर ढूंढ निकाला और इनको लेकर जा पहुंचा मुखिया ने देखते पूछां कभी कहीं नाटक वगैरह में काम किया है इन्होंने कहा नहीं लेकिन मैं रावण बन सकता हूं। मुखिया ने इनका कांफीडेंस देखकर तैयार हुआ और बात बन गई लेकिन मुखिया ने कहा रावण बनने के लिए तेज आवाज की जरूरत होने जरा लाउडली बोलने की आदत डालो इन्होंने कहा ठीक मैं बहुत तेज बोलूंगा। होते करते वो दिन भी आ गया जब रावण को स्टेज पर प्रकट होकर भगवान श्रीराम से युद्ध करना और उनको ललकारना था। भगवान राम के सामने आते ही महाशय अपने संवाद ही भूल गए मुह से आवाज बहुत धीमी-धीमी निकली पीछे से रामलीला का मुखिया चिल्लाया अरे क्या कर रहे हो यार तुम रावण हो मिमिया क्यों रहे हो जोर से दहाड़ों लेकिन ये महाशय दहाड़ नहीं सके बल्कि मिमियाते ही रहे। इतने में मुखिया ने माइक संभाला और पर्दे के पीछे से दहाड़ने लगा। और किसी तरह आज का कार्यक्रम संपन्न हुआ कल से नए रावण के नाम का फरमान मुखिया ने सुनाते हुए इनकी जमकर खबर ली। महाशय की गलती नहीं है कभी ये भी खूब दहाड़ते थे लेकिन जब से ये इस नये सीग्रेड चैनल में आएं हैं बेचारे की आवाज ही गुम हो गई हैं यहां तो इन्होंने सिर्फ मिमियाना सीखा है। इनको भली भांति याद है पांडेय जी का हाल जिन्होंने तीन महीने गुजर जाने पर जरा सी ऊंची आवाज में सैलरी मांग ली थी । एचआर और चैनल हेड ने तुरंत पांडेय जी की जमकर खबर ली थी और कहा था बहुत चर्बी चढ़ गई है काम धाम कुछ नहीं चैनल में नेतागीरी करते हैं लोगों को भड़काते हो। ऐसे लोगों की चैनल को जरूरत नहीं हैं कल से यहां आने की जरूरत नहीं। पांडेय जी ने लाख सफाई दी हो लेकिन चैनल हेड सिर्फ एक ही शब्द तोते की तरह रटते जा रहे थे नो आरग्यूमेंट एनफ एनफ...। इस खौफनाक घटना का असर मेरे मित्र पर कुछ ऐसा हुआ कि वो बस मिमियाते हैं ऐसे में भला वो रावण तो बन गया लेकिन रावण की दहाड़ कहां से लाए जो अब कहीं खो गई है। दूसरे की आवाज उठाने वाला पत्रकार अपनी ही आवाज ऊठाने के विवश क्यों हो गया है। क्या आज इसी पत्रकारिता की दरकार है।

लेखक- विवेक वाजपेयीमनोज टी.वी. पत्रकार हैं।

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